मेरी पुलिस डायरी से
मेरी पुस्तक All in the life of a Cop की पाठकों द्वारा सराहना से प्रोत्साहित होकर मैंने इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण 4 मार्च 2023 को विश्व पुस्तक मेला नई दिल्ली में प्रकाशित किया। इस पुस्तक में एक किस्से को छोड़ कर वही प्रकरण शामिल किए गए हैं जो इसके अंग्रेज़ी के संस्करण में हैं। पुस्तक अमेज़न पर 350 रुपये में व शिमला किताब घर, माल रोड शिमला में उपलब्ध है।
नए किस्से को मैं यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ ताकि जिन बंधुओं ने पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण को पढ़ा है उन्हें पुस्तक को पुनः खरीदने की आवश्यकता न पड़े।
प्रशिक्षु डॉक्टर द्वारा आत्महत्या
1
इस
धरती पर मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जिसको आत्महत्या करने का एकाधिकार प्राप्त
है। हालांकि वैज्ञानिकों ने, कुछ जीव प्रजातियाँ खोजी हैं जिन में आत्महत्या की
प्रवृति पाई गई है लेकिन उनके ऐसा करने के कारण बिल्कुल अलग हैं। मनोवैज्ञानिकों
ने मानव में आत्महत्या के कारणों को जानने का निरन्तर प्रयास किया है और वे किसी
सीमा तक सफल भी हुए हैं। फिर भी आत्महत्या अब तक एक रहस्यमय पहेली ही बनी हुई है।
मेरा इस कहानी को लिखने का एक विशेष
कारण है। मैं पाठकों को यह दर्शाना चाहता हूँ कि किस प्रकार आत्महत्या के लिए
प्रेरित करने के अभियोगों में, लोकमत के दवाब में, कानून का दुरुपयोग होता है।
मेरे पुलिस करियर में ऐसे अभियोगों की भरमार रही है, और मेरे भरसक प्रयत्नों के
बावजूद, बहुत से निर्दोष लोगों को मृतक के साथ संबंधों की कीमत चुकनी पड़ी। इस
प्रकार के अभियोगों पर अलग से पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है परंतु मेरा इस प्रकार
की एकरसता से पाठकों को ऊबाने का कोई इरादा नहीं है।
भारतीय दंड संहिता में आत्महत्या
एकमात्र ऐसा अपराध परिभाषित किया गया है जिस का प्रयास करना अपराध है, लेकिन उसे
पूरा करना अपराध नहीं है। अर्थात, आत्महत्या का प्रयास करना धारा 309 के अंतर्गत अपराध है और दोषी को 2 वर्ष तक के कारावास से दंडित किया जा
सकता है, परंतु यदि प्रयास करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाए तो यह अपराध की
श्रेणी में नहीं होगा। हाँ, यदि ये प्रमाणित हो जाए कि उस व्यक्ति को आत्महत्या के
लिए उकसाने में किसी दूसरे व्यक्ति का हाथ है, तो उकसाने वाला व्यक्ति, धारा 306 के अंतर्गत दंड का पात्र होगा।
भारतीय दंड संहिता, ई० सन 1860 में लागू
हुई थी। धारा 306 का मूल लक्ष्य, सती प्रथा का उन्मूलन था,
तथा किसी स्त्री को सती होने के लिए बाध्य करने वालों को दंडित करना था। इसीलिए,
उपरोक्त धारा में उकसाने का अभिप्राय, आत्महत्या करने वाले की उपस्थिति में, उसे
शब्दों या संकेतों द्वारा, आत्महत्या के लिए प्रेरित करना रहा। किसी व्यक्ति के
लिए ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करना, जिस से वह आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाए, इस
परिभाषा में नहीं आता। कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास ऐसी किसी भी
परिस्थिति से उबरने का कोई न कोई विकल्प अवश्य रहता है।
कालान्तर में केवल एक ऐसी परिस्थिति पाई
गई जिस से उबरने का, सामाजिक दबावों के चलते, कोई विकल्प संभव नहीं था। वह है एक
विवाहिता स्त्री के लिए, पति या उसके निकट संबंधियों द्वारा पैदा की गई
परिस्थितियाँ, जिस से वह स्त्री आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाए। विशेषतः भारत
में सामाजिक स्थिति ऐसी है कि परित्यक्ता के लिए जीवन दूभर हो जाता है। ऐसे में उस विवाहिता के पास इह लीला समाप्त
करने के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं बचता।
भारत में इस प्रकार की आत्महत्याएं, दूसरे देशों की तुलना में अधिक होती
हैं।
विवाहित स्त्रियों को सुरक्षा देने के
लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में धारा 113 (क) को जोड़ा गया जिस में प्रावधान किया
गया कि यदि ये प्रमाणित हो कि विवाहिता को ससुराल में शारीरिक एवं मानसिक यातनाएं
दी गईं थीं, और वो स्त्री आत्महत्या कर ले तो यह माना जाएगा कि आत्महत्या प्रताड़ना
के कारण हुई है, और प्रताड़ित करने वाले आरोपी आत्महत्या के लिए उकसाने के दोषी
होंगे। यहाँ यह स्पष्ट है कि धारा 113 (क) केवल विवाहित स्त्री के संदर्भ में ही
मान्य है अन्यत्र नहीं।
विधान इतना स्पष्ट होने के बावजूद, इन
प्रावधानों का दुरुपयोग होता है क्यों कि जनता कानून से अवगत नहीं और भावावेश में
पुलिस को कार्यवाही के लिए मजबूर कर देती है। मेरा यह अभिप्राय यह कतई नहीं है कि
इस प्रकार के दोषियों को, जो कि धारा 306 की परिधि में नहीं
आते, उन्हें छोड़ देना चाहिए। लेकिन उन्हें
केवल उसी अपराध का दंड मिलना चाहिए जिस के वो दोषी हों। उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी नहीं माना
जाना चाहिए। वर्तमान कथानक इसी परिस्थिति
को उजागर करेगा।
यहाँ यह समझना भी तार्किक होगा कि मूल
रूप से आत्महत्या करना एक मानसिक रोग है।
परिस्थिति का आकलन एवं गंभीरता, प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग है जो उसके
सामाजिक एवं पारिवारिक वातावरण पर आधारित होती है। देखा गया है कि एक बच्चा रोज पिता की मार खा कर
भी आत्महत्या नहीं करता, जब कि दूसरा बच्चा किसी विशेष बात पर पिता की डांट का
इतना बुरा मान लेता है कि आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है। कुछ लोग छोटी-छोटी
बातों पर भी अवसाद (डिप्रेशन) में चले जाते हैं।
नशे की आदत भी व्यक्ति को शीघ्र अवसाद में जाने का एक कारण हो सकता
है। जैसा कि बहुचर्चित अभिनेता सुशांत
सिंह राजपूत की आत्महत्या में संभावित है।
***
घटना वर्ष 1999 की है, जब मैं शिमला
जिला में पुलिस अधीक्षक तैनात था। जहां तक मुझे याद आता है, वह 21 अगस्त का दिन था। सुबह लगभग 8 बजे, जब अभी बाहर थोड़ा टहल कर लौटा ही था कि स्टडी-टेबल पर रखे फोन कि घंटी कर्कश स्वर में घनघना उठी। दूसरी तरफ से अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक श्री
दिलजीत ठाकुर का स्वर सुनाई दिया।
“गुड मॉर्निंग सर, अभी प्रभारी थाना ढली
ने फोन पर बताया कि उन्हें सूचना मिली है कि मेडिकल कॉलेज हॉस्टल में एक छात्र का
शव खिड़की की ऊपरी चौखट से लटका हुआ मिला है। प्रथम दृश्य मामला आत्महत्या का लग
रहा है। लेकिन छात्र बड़ी संख्या में एकत्रित हो गए हैं जो काफी गुस्से में हैं।”
“गुस्से में? .. .. क्यों?” मुझे लगा कि आत्महत्या के मामले में
छात्रों को क्रोधित होने का क्या कारण हो सकता था, “क्या घटना स्थल पर पुलिस बल
भेज दिया गया है?”
“यस सर। मैं स्वयं भी अभी जा रहा हूँ।
उन का कहना है कि आत्महत्या के लिए प्रोफेसर मालिक (काल्पनिक नाम) जिम्मेवार हैं
और उन्हें तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए।
मैं ने पुलिस लाइन से एक रिजर्व भेज दी है।”
“ठीक है, आप चलिए।” मैंने सहमति जताई, “थोड़ी देर में मैं भी
पहुंचता हूँ।”
मैं जल्दी से तैयार हुआ और ड्राइवर को बुलवा भेजा। इसी बीच मैंने अपने
वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित किया और उन से पुलिस वाहिनी जुंगा (शिमला से 20 किमी
पर स्थित) में अतिरिक्त बल तैयार रखने की प्रार्थना की। छात्रों के आंदोलन को हम हल्के में नहीं ले
सकते थे।
अगले पंद्रह मिनट में मेरा वाहन मेडिकल
कॉलेज हॉस्टल के गेट से दाखिल हो रहा था।
यह लड़कों का हॉस्टल, राजकीय महाविद्यालय के ऊपर, पहाड़ी पर स्थित है और उप
नगर संजौली में है। हॉस्टल भवन के बाहर,
लगभग तीन-चार सौ विद्यार्थी और 25-30 पुलिस के जवान मौजूद थे, जिन्होंने मेरी कार
के लिए छात्रों को इधर-उधर हटा कर रास्ता बनाया।
मुख्य द्वार पर गाड़ी रुकी जहां थाना प्रभारी मेरी अगवानी के लिए खड़े थे।
मैं गाड़ी से बाहर आया और एक उड़ती नजर
चारों तरफ खड़े विद्यार्थियों पर डाली। इन में कुछ लड़कियां भी थीं। मुझे देख कर एक कोने से कुछ छात्रों ने बुझी सी
आवाज में नारा लगाया, “प्रोफेसर मालिक को .. गिरफ्तार करो”। उनको नजरंदाज करते हुए मैं मुड़ा और भवन में
दाखिल हो गया।
एसएचओ, मुझे सीधे उस ऊपर की मंज़िल के उस
कमरे की ओर ले गए जहां शव पाया गया था। दरवाजे कि ऊपरी चौखट पर काले पेन्ट से 211
लिखा हुआ था। शायद यह कमरा नंबर था। कमरे के द्वार पर, श्री दिलजीत ठाकुर मेरी
प्रतीक्षा कर रहे थे। वे और एसएचओ मेरे पीछे-पीछे कमरे में आ गए।
ये एक छोटा सा दस फुट लंबा और इतना ही
चौड़ा कमरा (क्यूबिकल) था। वरिष्ठ छात्रों को इस प्रकार के कमरे दिए जाते हैं जिस
में वे अकेले रहते हैं। कमरे में एक
चारपाई, एक अलमारी और एक कुर्सी व टेबल रखे गए थे। शव को सफेद चादर से ढक कर फर्श पर रखा गया
था। कुर्सी, खिड़की के पास अव्यवस्थित सी
पड़ी हुई थी। घटनास्थल व शव की फोटोग्राफी
हो चुकी थी। खिड़की खुली हुई थी और ऊपर की
चौखट पर बंधी एक रस्सी लटक रही थी जिस का दूसरा सिरा कथित रूप से शव के गले में
बँधा हुआ था, जिसे अब खोल दिया गया था।
दीवारों पर कुछ फिल्मी नायक-नाइकाओं के पोस्टर चिपके हुए थे। दरवाजे का ऊपरी कुंडा चिटकनी के साथ ही उखड़ कर
लगा हुआ था जिस का अर्थ था कि दरवाजे को बलपूर्वक धक्का देकर खोला गया था।
थाना प्रभारी ने श्वेत कपड़ा शव के ऊपर
से नीचे सरकाया, और नीली टी-शर्ट के कॉलर को थोड़ा नीचे सरका कर, गले पर पड़े रस्सी
के निशान को दिखाया। इस में कोई संशय नहीं
था कि निशान जीवित स्थिति में लटकने का ही था।
शव एक लंबे हृष्ट-पुष्ट, गेहूएं रंग के व्यक्ति का था। ऐसा प्रतीत होता था कि मृतक ने लगभग एक सप्ताह
से शेव नहीं की थी। गले पर रस्सी द्वारा लटकने के निशान के अतिरिक्त शरीर पर कोई
अन्य चोट के निशान नहीं थे।
शव और कमरे के निरीक्षण के बाद मैंने
दिलजीत की ओर प्रश्नपूर्ण आँखों से देखा जो मेरे साथ ही खड़े थे। कमरे की पूरी तरह
से तलाशी पुलिस द्वारा ली जा चुकी थी।
“सभी साक्ष्य आत्महत्या की ओर ही इशारा
करते हैं” मेरा तात्पर्य समझते हुए वे बोले।
“क्या
कोई नोट …….?”
“जी हाँ, सर,” मेरी बात पूरी होने से पहले एसएचओ
बोल पड़े, “ये पन्ने सिरहाने के नीचे रखे हुए मिले।” और अपनी फाइल से कागजों का एक
पुलिंदा निकाल कर मेरे हवाले कर दिया।
“क्या यह सूइसाइड नोट है??” मैं कुछ आशंकित था।
इतना बड़ा पुलिंदा आत्महत्या से पूर्व का नोट कैसे हो सकता है ?
“जी सर, यही यहाँ मिला। सोलह पन्ने का नोट है
सर”, एसएचओ ने विश्वास दिलाने के अंदाज में कहा।
मैंने अनमने से सारे पन्ने पलटे। नोट हिन्दी और अंग्रेजी में लिखा गया था। कहीं-कहीं पर लिखावट अच्छी थी और कहीं-कहीं पर
शीघ्रता से लिखा गया प्रतीत होता था। अंत में बड़े अक्षरों में खींच कर लिखा नाम था
... ‘सुरेश’।
“अभी अपने पास रखो, बाद में पढ़ूँगा,” कह कर मैंने
पुलिंदा एसएचओ श्रीराम उपाध्याय को थमा दिया।”
हॉस्टल के वार्डन ने बताया
कि मृतक डा० सुरेश सरोठा (काल्पनिक नाम) एमबीबीएस की पढ़ाई, गत वर्ष पूरी कर चुका
था और अब वह एक वर्ष की इंटर्नशिप पर था। वरिष्ठ विद्यार्थियों को अलग क्यूबिकल
वितरित किए जाते हैं अतः वह अकेला रहता था।
सुबह जब मेस बॉय चाय लेकर गया तो उस ने दरवाज़ा नहीं खोला। उसने आस पास के कमरों के छात्रों को बताया।
छात्रों ने जोर-जोर से कमरे का द्वार खटखटाया और उसे पुकारा लेकिन अंदर कोई हलचल
नहीं हुई। फिर छात्रों ने वार्डन को सूचना दी जो तुरंत ही घटनास्थल पर आ गए।
हॉस्टल के सामने के मैदान से 211 नंबर कमरे की खिड़की दिख रही थी जो खुली हुई थी और
उस की चौखट से डा० सुरेश लटका हुआ दिख रहा था। वार्डेन और छात्रों ने द्वार को
धक्का देकर बलपूर्वक खोला। रस्सी खोलकर सुरेश को उतारा गया लेकिन तब तक उसकी
मृत्यु हो चुकी थी। जिस पर पुलिस को सूचना दी गई। दस मिनट में पुलिस पहुँच गई।
मृतक हरियाणा के करनाल का
निवासी था। उस के पिता को करनाल पुलिस के
माध्यम से इस दुखद घटना कि सूचना दे दी गई। करनाल से शिमला आने में, कम से कम, सात
आठ घंटे का समय लग सकता था। चूंकि तब तक शाम हो जाती और शव का पोस्टमार्टम संभव न
हो पाता। इसलिए, अभिभावकों की प्रतीक्षा किए बिना ही पोस्टमार्टम करवा दिया गया।
घटनास्थल के निरीक्षण के
पश्चात मैं घर वापस आ गया। आने से पहले मैंने एसएचओ को, सूइसाइड नोट की एक
प्रतिलिपि लिफ़ाफ़े में बंद कर के मेरे पास कार्यालय भेजने के लिए, कहा।
मेरी वापसी पर प्रोफेसर
मालिक के विरुद्ध नारेबाजी और अधिक प्रखर हो चुकी थी। छात्र थोड़ी देर नारेबाजी
करने के बाद वहाँ से चले गए।
लगभग सात बजे शाम, मृतक
सुरेश के पिता और कुछ अन्य लोग शिमला पहुँच गए। आवश्यक औपचारिकताओं के बाद शव उन
को सौंप दिया गया। शव के लिए मेडिकल कॉलेज
द्वारा एम्बुलेंस उपलब्ध करवाई गई ताकि उसे अंतिम संस्कार के लिए उसके घर करनाल ले
जाया जा सके।
क्रमशः ...
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