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शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

     

प्रशिक्षु डॉक्टर द्वारा आत्महत्या   

( गतांक से आगे... )

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           दोपहर बाद तक, मृतक कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट मेरे कार्यालय में पहुँच गई। मृत्यु का संभावित कारण लटकने से दम घुटना था। विसरा को रासायनिक जांच के लिए राज्य अपराध विज्ञान प्रयोगशाला के लिए भेज दिया गया था, जिस से पता चल सके कि मृतक ने किसी नशीले पदार्थ या विष का सेवन तो नहीं किया था। विसरा पर रिपोर्ट आने में अक्सर तीन चार दिन लग जाते हैं। तब तक, हम यह मान सकते थे कि आत्महत्या की पुष्टि हो चुकी है।

          उधर, मेडिकल कॉलेज में छात्र आंदोलन गति पकड़ रहा था। छात्रों की मुख्य मांग थी कि प्रो० मलिक को तुरंत गिरफ्तार व निलंबित किया जाए, तथा अन्य दोषियों के विरुद्ध भी तुरंत कार्रवाई की जाए। उन का विश्वास था कि डा० सुरेश की आत्महत्या का मुख्य कारण डा०  मलिक द्वारा दी गई प्रताड़ना थी। पुलिस द्वारा उचित कार्यवाही के आश्वासन का छात्रों पर कोई असर नहीं दिख रहा था।

          उसी दिन, मैंने अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक श्री दिलजीत ठाकुर व एसएचओ पुलिस स्टेशन ढली के साथ इस प्रकरण पर, विशेष रूप से सूइसाइड नोट पर विस्तृत चर्चा की। मैंने अपने पुलिस के पूरे कार्यकाल में कभी इतना लंबा नोट नहीं देखा था, न ही सुना था। मनोविज्ञान विशेषज्ञों का मत है कि अतीव डिप्रेशन के फलस्वरूप व्यक्ति बिना अधिक सोचे, आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है और यदि वह अधिक तर्क-वितर्क करने लगे, तो आत्महत्या संभव नहीं। ऐसी स्थिति में, वह सामान्यतः एक संक्षिप्त सा नोट लिखता है। इतना लंबा और विस्तृत नोट, हम सभी ने प्रथम बार ही देखा था।

          पहले हम इस नोट के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझने का प्रयत्न करते है। बता दूँ कि मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी कभी नहीं रहा। विज्ञान की इस शाखा का थोड़ा बहुत अध्ययन, मैंने पुलिस ट्रैनिंग तथा पुलिस प्रशासन में स्नातकोत्तर डिग्री, हासिल करने के लिए किया था। इतने से अर्जित ज्ञान के साथ ही, मैंने मृतक की मनोदशा को समझने का प्रयास किया।

          यह लगभग सर्व-विदित थ्योरी है कि मन (या मस्तिष्क) की दो अवस्थाएं होती हैं – चेतन और अवचेतन (Conscious and sub-conscious)चेतन मन पूरे मस्तिष्क का केवल एक प्रतिशत होता है और बाकी, अवचेतन मन होता है। चेतन मन से हम सोचना, समझना, याद करना, पढ़ना-लिखना व अन्य कार्य करते हैं। इस से हमें अपने चारों ओर के पर्यावरण का बोध रहता है। यदि आप इस की तुलना कंप्यूटर कि कार्यप्रणाली से करें तो यह CPU aur RAM के सदृश है, जिस का उपयोग कंप्यूटर अपने सभी कार्यों को करने में करता है।

          बचपन से व्यक्ति जो देखता है, करता है, और अनुभव पाता है वह सब वह मस्तिष्क में सँजो लेता है जिसे वह आवश्यकता पड़ने पर याद कर सकता है। इसे उस की स्मृति अथवा याददाश्त कहा जाता है। यह स्मृति कंप्यूटर की हार्ड-डिस्क की तरह है जिस से वह कोड पढ़ कर कार्य करता है।  किन्तु स्मृति भी, चेतन मन का ही भाग है।

          जिस क्षण, मनुष्य अबोध शिशु रूप में संसार में आता है, उसी क्षण से जो वह देखता सुनता है, अनुभव करता है, वह सब उस के मस्तिष्क पर अवश्य अमिट छाप छोड़ता है। कुछ अनुभव वह याद रख सकता है जो कुछ काल तक उस की स्मृति का भाग बनी रहती है, लेकिन कुछ अनुभव, अनजाने में ही उस के मन को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार की जानी अनजानी स्मृतियाँ व अनुभव और उन के प्रभाव, उस के मस्तिष्क में संचित होते रहते हैं और कालान्तर में वह उन का स्मरण तक नहीं कर पता। ये प्रभाव उस व्यक्ति के संस्कार एवं चरित्र का भाग बन जाते है। यही उस का अवचेतन मन है। मस्तिष्क के इस गुण के समानान्तर, शायद, कंप्यूटर में कुछ भी नहीं है।

          अब डा० सुरेश के सूइसाइड नोट पर वापिस आते हैं। जब वह अबोध बालक था, तभी से उसने अपनी माँ को पिटते व प्रताड़ित होते हुए देखा। ऐसे परिवार के बच्चों में, असुरक्षा और भय की भावना प्रबल होती है। अवचेतन मन में दबी कुंठाओं को चेतन मन, एक आवरण में छिपा देता है और व्यक्ति अत्यधिक साहस, हठ और श्रेष्ठता-भ्रम का शिकार हो जाता है। किन्तु आपात काल में अवचेतन मन के भाव, अनायास ही हावी हो जाते है। इसी प्रकार किशोरावस्था से ही उसे विभिन्न स्त्रियों से प्रशंसा व सहवास मिलता रहा, जिस ने उसके श्रेष्ठता-भ्रम को और प्रखर कर दिया। उसे विश्वास हो गया था कि जो भी वह चाहता है उसे अवश्य मिलेगा। इसी जिद के कारण वह दो वर्षों के प्रयास के बाद, सुषमा को पाने में सफल रहा। लेकिन कुछ समय बाद जब सुषमा ने पारिवारिक कारणों से उसे ठुकरा दिया तो ये उस की हठधर्मिता और श्रेष्ठता दोनों पर कुठाराघात था। वह यह सह नहीं पाया और उसके अवचेतन मन के असुरक्षा और भय के भावों ने, उसे भारी डिप्रेशन में धकेल दिया, जहां से वह कभी उबर नहीं पाया। प्रोफेसर मलिक और सुषमा के पिता शमशेर वर्मा (काल्पनिक नाम) द्वारा सताये जाने से उस की इन भावनाओं को और अधिक बल मिला और वह आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए विवश हो गया।

स्पष्ट है कि आत्महत्या के लिए, प्रो०  मलिक व सुषमा से अधिक जिम्मेवार, डा० सुरेश की अपनी कुंठायें थीं।

आत्महत्या से जुड़े कानूनी पहलुओं को समझने के लिए पाठक को सम्बंधित वैधानिक धाराओं को समझना आवश्यक होगा। हो सकता है कि उन्हें यह विवरण उबाऊ लगे, परंतु यह आवश्यक है।  मैं न्यूनतम शब्दों में समझाने का प्रयास करूंगा। किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करना, भारतीय दण्ड संहिता 1860 की, धारा 306 के अंतर्गत संज्ञेय अपराध है।  सिद्ध होने पर आरोपी को दस वर्ष के कारावास का दण्ड दिया जा सकता है। यहाँ दुष्प्रेरण का कानूनी अर्थ समझना अति आवश्यक है।

दण्ड संहिता कि धारा 107 में दुष्प्रेरण को परिभाषित किया गया है।

107. किसी बात का दुष्प्रेरणवह व्यक्ति किसी बात के किए जाने का दुष्प्रेरण करता है, जो--

पहलाउस बात को करने के लिए किसी व्यक्ति को उकसाता है ; अथवा

दूसराउस बात को करने के लिए किसी षड्यंत्र में, एक या अधिक, अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों के साथ सम्मिलित होता है, यदि उस षड्यंत्र के अनुसरण में, और उस बात को करने के उद्देश्य से, कोई कार्य या अवैध लोप (Ommission) घटित हो जाए ; अथवा

तीसराउस बात के लिए किए जाने में किसी कार्य व अवैध लोप ᳇द्वारा साशय सहायता करता है।

दुष्प्रेरण की उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि इस में, किसी को प्रताड़ित करके या डरा कर, ऐसी स्थिति उत्पन्न करना कि प्रताड़ित व्यक्ति आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाए, शामिल नहीं है, जब तक कि वे, उसे प्रत्यक्ष रूप से, ऐसा करने के लिए न उकसएं। अवधारणा यह है कि व्यक्ति के पास प्रताड़ना से बचने के कोई न कोई रास्ता अवश्य होता है।  वह पुलिस व अन्य अधिकारियों से शिकायत कर सकता है या वर्तमान प्रकरण में अपने प्रिन्सपल से शिकायत कर सकता था।

हाँ, इस अवधारणा का एक अपवाद है। माना जाता है कि एक विवाहित स्त्री यदि पति द्वारा और ससुराल के निकट संबंधियों द्वारा प्रताड़ित हो तो सामाजिक बंधनों के कारण उस के पास, आम तौर पर, आत्महत्या के अतिरिक्त विकल्प नहीं बचता। इस आशय से, भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 में संशोधन कर धारा 113 (क) को जोड़ा गया। इस धारा में व्यवस्था दी गई कि यदि विवाहिता के प्रति, पति या उसके नातेदार द्वारा, क्रूरता से उसे प्रताड़ित किया गया हो, और वह विवाह के सात वर्षों के भीतर आत्महत्या कर लेती है, तो न्यायालय उपधारणा कर सकेगा कि आत्महत्या उन के दुष्प्रेरण के कारण की गई है।

प्रबुद्ध पाठक समझ ही गए होंगे, कि इस मामले में सूइसाइड नोट में आरोपित व्यक्तियों को, डा० सुरेश की आत्महत्या के लिए जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। वैसे भी यदि कोई लड़की, अपने प्रेमी से ब्रेक-अप कर ले तो ये किसी भी कानून में अपराध नहीं है। प्रो०  मलिक और शमशेर वर्मा द्वारा यदि उसे डराया गया हो या प्रताड़ित किया गया हो तो वह कोई भी दूसरा अपराध हो सकता है, किन्तु आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरण नहीं हो सकता। अतः पुलिस के विचार से, IPC 306 के अंतर्गत अभियोग दर्ज करना उचित नहीं था और मामले में गहराई से आगे जांच करने की आवश्यकता थी। इन दोनों व्यक्तियों द्वारा की गई कथित प्रताड़ना या मारपीट के विरुद्ध, मृतक के पास पुलिस में शिकायत करने का विकल्प खुला था।  अभियोग दर्ज करने का मतलब था, निर्दोष सुषमा सहित अन्य सभी की वैधानिक प्रताड़ना एवं बदनामी।

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लेकिन लोक-मत हमारे विचार के विपरीत था। हमारे विचार को उचित सिद्ध होने में अभी तीन वर्ष और सीबीआई की आवश्यकता पड़ने वाली थी।

इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज के छात्रों का आंदोलन जोर पकड़ चुका था। छात्र कक्षाओं का बहिष्कार करने लगे थे। एक दो बार आंदोलनकारी छात्रों ने सड़क पर बैठ कर ट्रैफिक बाधित करने का प्रयत्न भी किया।  उनकी एक ही मांग थी कि प्रो० मलिक को तुरंत गिरफ्तार किया जाए और उसे निलंबित किया जाए। लेकिन इस के लिए पहले अभियोग दर्ज होना आवश्यक था।  भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के अनुसार प्राथमिक रिपोर्ट (FIR) तभी दर्ज की जा सकती है, जब किसी संज्ञेय अपराध का होना पाया जाए या ऐसा संदेह होने के पर्याप्त कारण हों कि संज्ञेय अपराध घटित हुआ है। किन्तु हमारी तब तक कि जांच में किसी संज्ञेय अपराध का होना नहीं पाया गया था।

पाठक के लिए यहाँ संज्ञेय (Cognizable) और असंज्ञेय (Non-cognizable) अपराध का अंतर जानना आवश्यक होगा। ये दोनों शब्द, दण्ड संहिता में परिभाषित हैं, जिस में सभी अपराधों को इन दो श्रेणियों में बांटा गया है। संज्ञेय अपराधों में पुलिस स्वयं कार्रवाई कर सकती है, तथा आरोपी को बिना वारन्ट के गिरफ्तार कर सकती है। इस के विपरीत अन्य अपराधों, जिन्हें असंज्ञेय कहा गया है, में पुलिस मजिस्ट्रेट की अनुमति के बाद ही कार्रवाई कर सकती है, तथा किसी को बिना वारन्ट गिरफ्तार नहीं कर सकती। विधान बनाने वालों का मन्तव्य रहा होगा, कि बहुत से छोटे अपराधों में पुलिस अपनी टांग न अड़ाए, वरन पीड़ित न्यायालय से न्याय मांगे। परंतु यथार्थ में, यदि किसी व्यक्ति को कोई गाली भी दे तो वह अपेक्षा करता है कि पुलिस (यानी राज्य) उस की सहायता करे और आवश्यक कार्रवाई करे। जब पुलिस, इस बिना पर, कार्यवाही से इनकार करे कि अपराध असंज्ञेय है, तो वह पुलिस को कोसता है, जिस से पुलिस की छवि धूमिल होती है। मेरे विचार से, विधानिका को सभी अपराध संज्ञेय कर देने चाहिए ताकि पुलिस जनसाधारण की अपेक्षा पर खरी उतर सके।

एक ओर, जहां छात्रों का आंदोलन उग्र हो चला था और वहीं दूसरी ओर, मृतक के परिजन, सभी आरोपियों की गिरफ़्तारी की मांग कर रहे थे। वे लोग इस सम्बन्ध में पुलिस महानिदेशक, तथा मुख्य मंत्री को भी मिले, और उनसे स्थानीय पुलिस की अकर्मण्यता की शिकायत की। अंततः आंदोलनकारियों व परिवारजनों के दवाब में पुलिस को, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज करनी पड़ी। तीनों आरोपियों, यानी प्रो० बाजवा, कुमारी सुषमा और उस के पिता शमशेर वर्मा, को इस बात की भनक लग गई और उन्होंने अग्रिम जमानत के लिए प्रदेश उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।

उस समय तक, पुलिस के पास आरोपियों के विरुद्ध, सूइसाइड नोट के अतिरिक्त और कोई भी अकाट्य साक्ष्य नहीं था। परिणाम स्वरूप, तीनों को अग्रिम जमानत मिल गई। आंदोलनकारी छात्रों को शांत करने के लिए मेडिकल कॉलेज प्रशासन ने एक आंतरिक जांच के पश्चात प्रो० मलिक को निलंबित कर दिया। छात्रों ने आंदोलन वापस ले लिया।

मृतक के परिवार वाले, एसएचओ पुलिस स्टेशन ढली की जांच से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने मुख्यमंत्री से अभियोग को जांच के लिए सीबीआई को स्थानांतरित करने की मांग रखी। लेकिन उनकी यह मांग स्वीकार नहीं हुई, मगर अभियोग को सीआईडी कि अपराध शाखा को भेज दिया गया। 

नवम्बर 1999 को मेरा स्थानांतरण, एसपी जिला मंडी के तौर पर हो गया।  अतः अभियोग में आगे की जांच के विस्तृत विवरण से अनभिज्ञ रहा।  लेकिन बीच-बीच में कुछ समाचार मिलते रहे। पता चला कि प्रो० बाजवा ने क्षुब्ध हो कर नौकरी छोड़ने का और स्वैच्छिक सेवा निवृति का आवेदन किया था जो सरकार ने अस्वीकृत कर दिया। निलंबन अवधि में यह संभव नहीं था।

कुमारी सुषमा, और उस के पिता को भी बारम्बार पूछताछ के लिए अपराध शाखा के चक्कर लगाने पड़े। बाद में पता चला, कि फ़रवरी 2000 में, अभियोग को केन्द्रीय जांच ब्यूरो को आगे की जांच के लिए भेज दिया गया। यह आश्चर्यजनक था। आम तौर पर, सीबीआई इस प्रकार के अभियोगों को केवल प्रदेश सरकार की सलाह पर जांच के लिए नहीं लेती, जब तक कि वह स्वयं को इस की उपयोगिता पर आश्वस्त न का ले। दूसरे, मेरे विचार में, मृतक एक गरीब परिवार से सम्बंधित था। उन्होंने प्रदेश सरकार को अभियोग को सीबीआई को भेजने के लिए कैसे प्रभावित किया होगा। पाठक को याद होगा कि जिला सिरमौर का एक अभियोग, जिस में चार वयस्कों और एक बालक की निर्मम हत्या हुई थी और अढ़ाई सौ भेड़-बकरियाँ चोरी हुई थीं और जांच में कोई प्रगति नहीं हो पा रही थी, को सरकार ने सीबीआई को देने के बारे विचार तक नहीं किया। इतना ही नहीं, सीबीआई को स्थानीय पुलिस की कार्रवाई की विवेचना करने को भी कहा गया कि यदि उन्होंने अभियोग में कोई ढील बरती है तो उनके विरुद्ध भी कार्यवाही की जाए।

दो वर्षों तक सीबीआई की जांच चलती रही। इस दौरान सभी आरोपियों को कई बार, जांच अधिकारियों ने, शिमला तथा चंडीगढ़ में जांच में शामिल होने के लिए तलब किया। कई अन्य गवाहों के व्यान लिए गए। अंततः गहन जांच के पश्चात, सीबीआई ने मेरे मत की पुष्टि कर दी और अभियोग में, वर्ष 2003 में क्लोज़र रिपोर्ट दे दी और कहा कि आरोपियों के विरुद्ध धारा 306 के आरोप सिद्ध नहीं हुए। जांच अधिकारी, एसएचओ ढली की भी कोई ढील नहीं पाई गई।

मामला शांत हुआ लेकिन अपने पीछे अनगिनत प्रश्न छोड़ गया। वस्तुतः इन प्रश्नों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए ही इस प्रकरण को इस पुस्तक में स्थान मिला। 

एक व्यक्ति की मानसिक विकृतियों के कारण तीन जीवन टूटने के कगार पर आ गए।  प्रो० मलिक को बहाल कर दिया गया। लेकिन वे स्वेच्छा से सेवानिवृत्त हो गए और उन्होंने खामोशी से शिमला को अलविदा कह दिया। इसी प्रकार कुमारी सुषमा और उनके पिता को घोर मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ा। बदनामी का दंश सहन पड़ा। इस घटना ने उन के व्यक्तिगत और सामाजिक पटल पर ऐसे घाव दे दिए, जो उन्हें जीवन-पर्यंत ढोने पड़ेंगे।

अपनी माँ के सपने भी उस ने निर्ममता से तोड़ दिए। इस कर्म भीरु व्यक्ति, जिस में जीवन की कठिनाइयों से लड़ने का साहस नहीं था, से किसी को भी संवेदना नहीं हो सकती।

इस प्रकार का यह कोई इकलौता मामला नहीं है जहां पुलिस को दवाब में आ कर अभियोग दर्ज करना पड़ा हो और अंततः उस का कोई परिणाम नहीं निकला हो।  फिर भी इनकी पुनरावृति होती रहती है।  पुलिस अनुचित दवाब का प्रतिकार करने में असफल रहती है और कई जीवन, उस अपराध का दंड भुगतने को बाध्य हो जाते हैं जो उन्होंने वास्तव में किया ही नहीं।

(... ... समाप्त)

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मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

प्रशिक्षु डॉक्टर द्वारा आत्महत्या

(........गतांक से आगे)

            अगले दिन, ऑफिस पहुँचा तो एसएचओ द्वारा भेजी गए फाइल मेरे मेज पर पड़ी थी।  मेरी उत्सुकता चरम सीमा पर थी। फाइल में डा० सुरेश द्वारा आत्महत्या से पहले लिखा गया 16 पृष्ठों का नोट, टैग कर के रखा गया था। मैंने ध्यान पूर्वक पढ़ा। आत्महत्या से पहले कोई व्यक्ति इतना कुछ लिख सकता है? मेरी बुद्धि चकरा गई। कितने गंदे शब्दों का प्रयोग किया गया था! मैं दंग था। मृतक में पोर्न साहित्य का रचनाकार बनने के गुण प्रचुर मात्र में थे।  उसकी कहानी के सभी पहलुओं को अच्छे से दिमाग में बिठाने के लिए मैंने उसे बारम्बार पढ़ा। 

          इक्कीस वर्ष बाद, मैं इस घटना के विवरण को लिखने बैठा हूँ। इतने लंबे अंतराल तक उक्त नोट में लिखी गईं बातों को स्मरण रखना मेरे लिए लगभग असंभव था। इस संदर्भ में सीबीआई अधिकारियों ने मेरी स्मृति को ताज़ा करने में मेरी सहायता की। अतः मैं पहले सूइसाइड नोट में मृतक द्वारा लिखी गई बातों का वर्णन करूंगा। यहाँ बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हालांकि मैं प्रथम पुरुष में कहूँगा, लेकिन शब्द और व्याख्या मेरी ही है। तत्पश्चात हम इस के मनोवैज्ञानिक, एवं वैधानिक पहलुओं पर चर्चा करेंगे। हाँ, उस में वर्णित कुछ घृणित शब्दों और घटनाओं का वर्णन करना उचित नहीं होगा फिर भी मेरा प्रयत्न रहेगा कि मैं प्रबुद्ध पाठकों तक मृतक के अभिप्राय का बोध करने में सफल होऊँगा।

सूइसाइड नोट में मृतक ने लिखा था कि ‘मेरा जीवन आरंभ से ही उथल-पुथल भरा रहा। मेरी मां पढ़ी लिखी थी, BA पास थी। लेकिन न जाने तकदीर कहाँ से लिखवा के लाई थी। शादी की, तो लगभग अनपढ़ आदमी से। निठल्ला व शराबी था मेरा बाप। छोटी-छोटी बातों पर, या कभी शराब के लिए, मां को बेदर्दी से मारता था। ससुराल में पहुंचते ही माँ के गहनों पर उस की सास ने कब्ज़ा जमा लिया। मेरी माँ यह अन्याय और मार पीट से अकेले ही लड़ती रही। उस के स्थान पर कोई और होती तो कब की शराबी पति को छोड़ कर भाग गई होती। लेकिन उस ने कभी हार नहीं मानी। अन्याय का सामना असामान्य साहस से करती रही।’

‘बहुत मेहनत के बाद माँ ने अपने पति को किराये के अलग घर में रहने के लिए मना लिया। लेकिन यहाँ भी, उस के साथ मार-पीट में कोई कमी नहीं आई। सास व ननद इत्यादि वहाँ आ कर भी झगड़ा करने से नहीं चूकते। किसी तरह उस ने अपने रिश्तेदारों की मदद से, पति के लिए एक पुरानी गाड़ी ले दी जिस से घर की कुछ आमदनी होने लगी। स्वयं भी उस ने एक ब्यूटी-पार्लर खोल लिया जिस के लिए, उस ने एक परिचित के साथ पार्ट्नर्शिप कर ली थी।’  

‘माता-पिता दोनों कमाने लगे थे, जिस से परिवार की आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार हुआ। लेकिन इस से परिवार में लड़ाई झगड़ा व मार पीट में कोई कमी नहीं आई, बल्कि बढ़ोतरी हो गई। अब तो सभी मेरी माँ को बदनाम भी करने लगे कि उस ने पार्लर पार्टनर से शारीरिक सम्बन्ध भी बना लिए हैं। इस सब का सामना वो निरीह महिला अकेली करती रही। कितने दुख की बात है कि उसका प्यारा बेटा भी, इस मामले में, परिवार वालों का साथ देता रहा। थोड़ा बड़ा होने पर मैंने महसूस किया कि उस पर झूठे आरोप लगाए जा रहे थे।’

‘जब मैं पाँच-छह वर्ष का था, तो मेरी छोटी बुआ मेरे साथ कुकर्म करने का प्रयत्न करने लगी। वह मेरे जीवन की पहली लड़की थी।  मुझे बहुत दर्द होता था और जब में दर्द से चिल्लाता था मेरा मुंह बंद कर देती थी। मुझे याद है कि एक बार मैंने माँ को बताया कि मेरे दर्द होता है तो वह मुझे अस्पताल ले गई जहां मेरा सर्कमसीजन किया गया।’

‘सात आठ साल का हुआ तो मेरे चाचा की लड़की हमारे घर खेलने आती थी।  वह मुझ से बड़ी है। कुछ ही दिनों में उस ने मेरे होंठों पर चुंबन करना आरंभ कर दिया। लेकिन मुझे अच्छा नहीं लगता था।’

‘मेरी ज़िंदगी में तीसरी लड़की थी प्रेमा (काल्पनिक नाम)। वह मेरी मौसी की बेटी है और मेरी हम-उम्र है। हम अक्सर मामा के घर जाते थे और खेलते थे। धीरे-धीरे हम एक-दूसरे को पसंद करने लगे और एक दूसरे का चुंबन करने लगे। अब मुझे यह अच्छा लगने लगा था। मुझे लगता था कि मैं उस से विवाह कर लूँगा। यह सिलसिला 19 वर्ष की आयु तक चला। फिर मैंने देखा कि प्रेमा के और भी दोस्त थे जिन के साथ उसका ऐसा ही व्यवहार था। मुझे असीम दुख हुआ और मैने निश्चय किया कि मैं उस के साथ विवाह नहीं करूंगा।’

‘एक अधेड़ औरत हमारे घर काम करने आती थी। अपनी चुन्नी उतार कर मेरे मेज पर इस तरह से पोचा लगाती थी, कि मैं उस की छाती देख सकूँ। उस के साथ गंदी बातचीत तो हुई, लेकिन मैं इस से आगे नहीं बढ़ा। मेरे दोस्त ने, जो अब एयरफोर्स में है, उस के साथ एक-दो बार संभोग किया। मेरी माँ के पार्लर में काम करने वाली एक लड़की भी मुझ पर डोरे डालने लगी। उस के मुंह से बड़ी दुर्गंध आती थी, अतः मैंने उस को बढ़ावा नहीं दिया।’

‘मेरी माँ की मेहनत एक दिन रंग लाई और मैंने PMT क्लियर कर लिया। मैं पढ़ाई में ठीक था। मैंने मेडिकल कॉलेज (शिमला) ज्वाइन कर लिया। वहाँ मैं सुषमा, सुषमा वर्मा (काल्पनिक नाम) को मिला। पहली बार मैंने उसे गेटी थियेटर में एक नाटक के मंचन पर देखा। कितनी सुन्दर और भोली लग रही थी। मेरा दिल मचल गया और मैंने ठान लिया कि मैं उसी को जीवन-संगिनी बनाऊँगा। उस को मनाने में दो साल लग गए। वो इतनी मेहनत की यथार्थ में हकदार थी।’

‘मेरी बर्बादी का सफर यहीं से शुरू होता है। प्रोफेसर  मलिक (काल्पनिक नाम) एक बहुत ही कमीना आदमी है। जिस किसी से भी उसे खुंदक हो, उसे खुले तौर पर कहता है कि फेल कर दूंगा। वैसे वो पढ़ाने में अच्छा है, लेकिन क्लास में ज्यादातर सेक्स ही डिस्कस करता है। विद्यार्थियों से शराब लाने को कहता है और उन से पैसे भी माँगता है। उसे खुश रखने के लिए छात्रों को उस कि मांगें माननी पड़ती हैं। यहाँ तक कि स्टूडेंटस एसोसिएशन को, होटल में पार्टी देने को कहता है, जिन्हें मानना पड़ता है। पार्टी में वह प्रिन्सपल और अन्य प्रोफेसरों को भी निमंत्रित करता है ताकि उस का रोब बना रहे। मैंने उसकी कुछ अनुचित मांगों को मानने  से मना कर दिया और उस ने मुझे फेल कर दिया।’

‘बर्बादी के सफर का दूसरा झटका मुझे सुषमा ने दिया....। अचानक तुमने मुझ से मिलना बंद कर दिया। तुमसे इतनी बेवफाई की उम्मीद नहीं थी। मैंने तुम्हें दिल की गहराइयों से प्यार किया। तुम उस फौजी के बेटे, जो तुम्हारे साथ गेटी थिएटर में फेशन शो में तुम्हारे साथ था, के साथ आने जाने लगी। तुम ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। मैं शराब और सिगरेट पीता था। अब तुम्हें मेरे मुंह से बदबू आने लगी। मैं तो तुम से विवाह करना चाहता था।’

‘इन बातों से मैं बहुत डिप्रेस्ड रहने लगा, और 31 दिसंबर 1998 को अपने घर करनाल चला गया। लेकिन वहाँ भी दर्द ने दामन नहीं छोड़ा और मैं वापिस शिमला आ गया। मैंने सुषमा से मिलने कि कोशिश की, लेकिन सफल न हो सका।  मैं उस के बाप से भी उस के घर पर मिला। सुषमा ने तो मुझे पहचानने से ही इनकार कर दिया और उस  के बाप ने मुझे धक्के मार के बाहर निकाल दिया।’

‘मैं घायल सांप कि तरह फुफकारता हुआ हॉस्टल पहुँचा। कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करूँ। सुषमा से बदला  लेने की नियत से मैंने तृतीया वर्ष की एक छात्रा, को गर्ल-फ्रेंड बनाया। मेरे अंदर के शैतान ने उसका शारीरिक शोषण भी किया, लगभग 25 बार। फिर भी मेरे दिल की आग शांत नहीं हो रही।’

‘इसी बीच प्रोफेसर  मलिक और सुषमा के बाप, शमशेर वर्मा (काल्पनिक नाम), ने मेरे विरुद्ध हाथ मिला लिए। बर्मा ने  मलिक को बोला कि मैंने  उसके (मलिक) के बेटे को मारने की सुपारी दी है। प्रो० मलिक ने मेरे ऊपर चोरी का झूठा इल्जाम लगाया और मुझे बदनाम करने की कोशिश की। दोनों ने यह बात फैलाई कि डा० सुरेश के अपनी मौसेरी बहन प्रेमा से अवैध सम्बन्ध हैं और उस का बच्चा मेरे से है।’

‘मेरा मन संसार से भर गया है ………! SORRY MUMMA…’

इन शब्दों के नीचे उसने अपने हस्ताक्षर किए हुए थे और दिनांक 20-8-99, 1.00 AM अंकित किया हुआ था और अंग्रेजी में लिखी हुई, अंतिम पंक्ति थी: 

I hate you Shimla…..”

यह नोट हस्तलिखित था और 15 पृष्ठों में था। सोलहवें पन्ने पर 25-30 लोगों की सूची थी, और अंत में मृतक ने लिखा था कि इन लोगों से उस नोट में दिए गए तथ्यों के बारे में पूछताछ की जानी चाहिए। और अंत में लिखा था कि उसकी मृत्यु व्यर्थ नहीं जाएगी।

सूइसाइड नोट को पढ़ने के बाद मैं काफी समय इस बारे में सोचता रहा। मेरे मन में सहानुभूति, क्रोध, घृणा के मिश्रित भाव आते-जाते रहे। मेरे सम्मुख प्रश्न यह था कि क्या इस नोट में इंगित लोगों को अपराधी माना जाना चाहिए और उन के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही होनी चाहिए या नहीं? मृतक का मानसिक ताना-बाना चाहे जो भी रहा हो, इन लोगों के कारण एक जान चली गई, एक होनहार जीवन का अंत हो गया, एक माँ के सपने चकना चूर हो गए और उसका एकमात्र सहारा छिन गया। दोषी तो वे हैं ही, लेकिन प्रश्न वहीं था कि क्या वे आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराधी हैं या नहीं। 

(क्रमशः ... )

गुरुवार, 30 मार्च 2023

 मेरी पुलिस डायरी से 

मेरी पुस्तक All in the life of a Cop की पाठकों द्वारा सराहना से प्रोत्साहित होकर मैंने इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण 4 मार्च 2023 को विश्व पुस्तक मेला नई दिल्ली में प्रकाशित किया।  इस पुस्तक में एक किस्से को छोड़ कर वही प्रकरण शामिल किए गए हैं जो इसके अंग्रेज़ी के संस्करण में हैं। पुस्तक अमेज़न पर 350 रुपये में व शिमला किताब घर, माल रोड शिमला में उपलब्ध है। 

नए किस्से को मैं यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ ताकि जिन बंधुओं ने पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण को पढ़ा है उन्हें पुस्तक को पुनः खरीदने की आवश्यकता न पड़े। 


प्रशिक्षु डॉक्टर द्वारा आत्महत्या

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          इस धरती पर मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जिसको आत्महत्या करने का एकाधिकार प्राप्त है। हालांकि वैज्ञानिकों ने, कुछ जीव प्रजातियाँ खोजी हैं जिन में आत्महत्या की प्रवृति पाई गई है लेकिन उनके ऐसा करने के कारण बिल्कुल अलग हैं। मनोवैज्ञानिकों ने मानव में आत्महत्या के कारणों को जानने का निरन्तर प्रयास किया है और वे किसी सीमा तक सफल भी हुए हैं। फिर भी आत्महत्या अब तक एक रहस्यमय पहेली ही बनी हुई है।

          मेरा इस कहानी को लिखने का एक विशेष कारण है। मैं पाठकों को यह दर्शाना चाहता हूँ कि किस प्रकार आत्महत्या के लिए प्रेरित करने के अभियोगों में, लोकमत के दवाब में, कानून का दुरुपयोग होता है। मेरे पुलिस करियर में ऐसे अभियोगों की भरमार रही है, और मेरे भरसक प्रयत्नों के बावजूद, बहुत से निर्दोष लोगों को मृतक के साथ संबंधों की कीमत चुकनी पड़ी। इस प्रकार के अभियोगों पर अलग से पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है परंतु मेरा इस प्रकार की एकरसता से पाठकों को ऊबाने का कोई इरादा नहीं है।

          भारतीय दंड संहिता में आत्महत्या एकमात्र ऐसा अपराध परिभाषित किया गया है जिस का प्रयास करना अपराध है, लेकिन उसे पूरा करना अपराध नहीं है। अर्थात, आत्महत्या का प्रयास करना धारा 309 के अंतर्गत अपराध है और दोषी को 2 वर्ष तक के कारावास से दंडित किया जा सकता है, परंतु यदि प्रयास करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाए तो यह अपराध की श्रेणी में नहीं होगा। हाँ, यदि ये प्रमाणित हो जाए कि उस व्यक्ति को आत्महत्या के लिए उकसाने में किसी दूसरे व्यक्ति का हाथ है, तो उकसाने वाला व्यक्ति, धारा 306 के अंतर्गत दंड का पात्र  होगा।

          भारतीय दंड संहिता, ई० सन 1860 में लागू हुई थी। धारा 306 का मूल लक्ष्य, सती प्रथा का उन्मूलन था, तथा किसी स्त्री को सती होने के लिए बाध्य करने वालों को दंडित करना था। इसीलिए, उपरोक्त धारा में उकसाने का अभिप्राय, आत्महत्या करने वाले की उपस्थिति में, उसे शब्दों या संकेतों द्वारा, आत्महत्या के लिए प्रेरित करना रहा। किसी व्यक्ति के लिए ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करना, जिस से वह आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाए, इस परिभाषा में नहीं आता। कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास ऐसी किसी भी परिस्थिति से उबरने का कोई न कोई विकल्प अवश्य रहता है।

          कालान्तर में केवल एक ऐसी परिस्थिति पाई गई जिस से उबरने का, सामाजिक दबावों के चलते, कोई विकल्प संभव नहीं था। वह है एक विवाहिता स्त्री के लिए, पति या उसके निकट संबंधियों द्वारा पैदा की गई परिस्थितियाँ, जिस से वह स्त्री आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाए। विशेषतः भारत में सामाजिक स्थिति ऐसी है कि परित्यक्ता के लिए जीवन दूभर हो जाता है।  ऐसे में उस विवाहिता के पास इह लीला समाप्त करने के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं बचता।  भारत में इस प्रकार की आत्महत्याएं, दूसरे देशों की तुलना में अधिक होती हैं।

          विवाहित स्त्रियों को सुरक्षा देने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में धारा 113 (क) को जोड़ा गया जिस में प्रावधान किया गया कि यदि ये प्रमाणित हो कि विवाहिता को ससुराल में शारीरिक एवं मानसिक यातनाएं दी गईं थीं, और वो स्त्री आत्महत्या कर ले तो यह माना जाएगा कि आत्महत्या प्रताड़ना के कारण हुई है, और प्रताड़ित करने वाले आरोपी आत्महत्या के लिए उकसाने के दोषी होंगे। यहाँ यह स्पष्ट है कि धारा 113 (क) केवल विवाहित स्त्री के संदर्भ में ही मान्य है अन्यत्र नहीं।

          विधान इतना स्पष्ट होने के बावजूद, इन प्रावधानों का दुरुपयोग होता है क्यों कि जनता कानून से अवगत नहीं और भावावेश में पुलिस को कार्यवाही के लिए मजबूर कर देती है। मेरा यह अभिप्राय यह कतई नहीं है कि इस प्रकार के दोषियों को, जो कि धारा 306 की परिधि में नहीं आते, उन्हें छोड़ देना चाहिए।  लेकिन उन्हें केवल उसी अपराध का दंड मिलना चाहिए जिस के वो दोषी हों।  उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी नहीं माना जाना चाहिए।  वर्तमान कथानक इसी परिस्थिति को उजागर करेगा।

          यहाँ यह समझना भी तार्किक होगा कि मूल रूप से आत्महत्या करना एक मानसिक रोग है।  परिस्थिति का आकलन एवं गंभीरता, प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग है जो उसके सामाजिक एवं पारिवारिक वातावरण पर आधारित होती है।  देखा गया है कि एक बच्चा रोज पिता की मार खा कर भी आत्महत्या नहीं करता, जब कि दूसरा बच्चा किसी विशेष बात पर पिता की डांट का इतना बुरा मान लेता है कि आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है। कुछ लोग छोटी-छोटी बातों पर भी अवसाद (डिप्रेशन) में चले जाते हैं।  नशे की आदत भी व्यक्ति को शीघ्र अवसाद में जाने का एक कारण हो सकता है।  जैसा कि बहुचर्चित अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या में संभावित है।

***

          घटना वर्ष 1999 की है, जब मैं शिमला जिला में पुलिस अधीक्षक तैनात था। जहां तक मुझे याद आता है, वह 21 अगस्त का दिन था। सुबह लगभग 8 बजे, जब अभी बाहर थोड़ा टहल कर लौटा ही था कि स्टडी-टेबल पर रखे फोन कि घंटी कर्कश स्वर में घनघना उठी।  दूसरी तरफ से अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक श्री दिलजीत ठाकुर का स्वर सुनाई दिया।

          “गुड मॉर्निंग सर, अभी प्रभारी थाना ढली ने फोन पर बताया कि उन्हें सूचना मिली है कि मेडिकल कॉलेज हॉस्टल में एक छात्र का शव खिड़की की ऊपरी चौखट से लटका हुआ मिला है। प्रथम दृश्य मामला आत्महत्या का लग रहा है। लेकिन छात्र बड़ी संख्या में एकत्रित हो गए हैं जो काफी गुस्से में हैं।”

          “गुस्से में? .. ..  क्यों?” मुझे लगा कि आत्महत्या के मामले में छात्रों को क्रोधित होने का क्या कारण हो सकता था, “क्या घटना स्थल पर पुलिस बल भेज दिया गया है?”

          “यस सर। मैं स्वयं भी अभी जा रहा हूँ। उन का कहना है कि आत्महत्या के लिए प्रोफेसर मालिक (काल्पनिक नाम) जिम्मेवार हैं और उन्हें तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए।  मैं ने पुलिस लाइन से एक रिजर्व भेज दी है।”

          “ठीक है, आप चलिए।”  मैंने सहमति जताई, “थोड़ी देर में मैं भी पहुंचता हूँ।”

          मैं जल्दी से तैयार हुआ और ड्राइवर को बुलवा भेजा। इसी बीच मैंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित किया और उन से पुलिस वाहिनी जुंगा (शिमला से 20 किमी पर स्थित) में अतिरिक्त बल तैयार रखने की प्रार्थना की।  छात्रों के आंदोलन को हम हल्के में नहीं ले सकते थे।

          अगले पंद्रह मिनट में मेरा वाहन मेडिकल कॉलेज हॉस्टल के गेट से दाखिल हो रहा था।  यह लड़कों का हॉस्टल, राजकीय महाविद्यालय के ऊपर, पहाड़ी पर स्थित है और उप नगर संजौली में है।  हॉस्टल भवन के बाहर, लगभग तीन-चार सौ विद्यार्थी और 25-30 पुलिस के जवान मौजूद थे, जिन्होंने मेरी कार के लिए छात्रों को इधर-उधर हटा कर रास्ता बनाया।  मुख्य द्वार पर गाड़ी रुकी जहां थाना प्रभारी मेरी अगवानी के लिए खड़े थे।

          मैं गाड़ी से बाहर आया और एक उड़ती नजर चारों तरफ खड़े विद्यार्थियों पर डाली। इन में कुछ लड़कियां भी थीं।  मुझे देख कर एक कोने से कुछ छात्रों ने बुझी सी आवाज में नारा लगाया, “प्रोफेसर मालिक को .. गिरफ्तार करो”।  उनको नजरंदाज करते हुए मैं मुड़ा और भवन में दाखिल हो गया।

          एसएचओ, मुझे सीधे उस ऊपर की मंज़िल के उस कमरे की ओर ले गए जहां शव पाया गया था। दरवाजे कि ऊपरी चौखट पर काले पेन्ट से 211 लिखा हुआ था। शायद यह कमरा नंबर था। कमरे के द्वार पर, श्री दिलजीत ठाकुर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। वे और एसएचओ मेरे पीछे-पीछे कमरे में आ गए।

          ये एक छोटा सा दस फुट लंबा और इतना ही चौड़ा कमरा (क्यूबिकल) था। वरिष्ठ छात्रों को इस प्रकार के कमरे दिए जाते हैं जिस में वे अकेले रहते हैं।  कमरे में एक चारपाई, एक अलमारी और एक कुर्सी व टेबल रखे गए थे।  शव को सफेद चादर से ढक कर फर्श पर रखा गया था।  कुर्सी, खिड़की के पास अव्यवस्थित सी पड़ी हुई थी।  घटनास्थल व शव की फोटोग्राफी हो चुकी थी।  खिड़की खुली हुई थी और ऊपर की चौखट पर बंधी एक रस्सी लटक रही थी जिस का दूसरा सिरा कथित रूप से शव के गले में बँधा हुआ था, जिसे अब खोल दिया गया था।  दीवारों पर कुछ फिल्मी नायक-नाइकाओं के पोस्टर चिपके हुए थे।  दरवाजे का ऊपरी कुंडा चिटकनी के साथ ही उखड़ कर लगा हुआ था जिस का अर्थ था कि दरवाजे को बलपूर्वक धक्का देकर खोला गया था।

          थाना प्रभारी ने श्वेत कपड़ा शव के ऊपर से नीचे सरकाया, और नीली टी-शर्ट के कॉलर को थोड़ा नीचे सरका कर, गले पर पड़े रस्सी के निशान को दिखाया।  इस में कोई संशय नहीं था कि निशान जीवित स्थिति में लटकने का ही था।  शव एक लंबे हृष्ट-पुष्ट, गेहूएं रंग के व्यक्ति का था।  ऐसा प्रतीत होता था कि मृतक ने लगभग एक सप्ताह से शेव नहीं की थी। गले पर रस्सी द्वारा लटकने के निशान के अतिरिक्त शरीर पर कोई अन्य चोट के निशान नहीं थे।

          शव और कमरे के निरीक्षण के बाद मैंने दिलजीत की ओर प्रश्नपूर्ण आँखों से देखा जो मेरे साथ ही खड़े थे। कमरे की पूरी तरह से तलाशी पुलिस द्वारा ली जा चुकी थी।

          “सभी साक्ष्य आत्महत्या की ओर ही इशारा करते हैं” मेरा तात्पर्य समझते हुए वे बोले।

“क्या कोई नोट …….?”

जी हाँ, सर,” मेरी बात पूरी होने से पहले एसएचओ बोल पड़े, “ये पन्ने सिरहाने के नीचे रखे हुए मिले।” और अपनी फाइल से कागजों का एक पुलिंदा निकाल कर मेरे हवाले कर दिया।

“क्या यह सूइसाइड नोट है??” मैं कुछ आशंकित था। इतना बड़ा पुलिंदा आत्महत्या से पूर्व का नोट कैसे हो सकता है ?

“जी सर, यही यहाँ मिला। सोलह पन्ने का नोट है सर”, एसएचओ ने विश्वास दिलाने के अंदाज में कहा।

मैंने अनमने से सारे पन्ने पलटे।  नोट हिन्दी और अंग्रेजी में लिखा गया था।  कहीं-कहीं पर लिखावट अच्छी थी और कहीं-कहीं पर शीघ्रता से लिखा गया प्रतीत होता था। अंत में बड़े अक्षरों में खींच कर लिखा नाम था ... ‘सुरेश’।

“अभी अपने पास रखो, बाद में पढ़ूँगा,” कह कर मैंने पुलिंदा एसएचओ श्रीराम उपाध्याय को थमा दिया।”

          हॉस्टल के वार्डन ने बताया कि मृतक डा० सुरेश सरोठा (काल्पनिक नाम) एमबीबीएस की पढ़ाई, गत वर्ष पूरी कर चुका था और अब वह एक वर्ष की इंटर्नशिप पर था। वरिष्ठ विद्यार्थियों को अलग क्यूबिकल वितरित किए जाते हैं अतः वह अकेला रहता था।  सुबह जब मेस बॉय चाय लेकर गया तो उस ने दरवाज़ा नहीं खोला।  उसने आस पास के कमरों के छात्रों को बताया। छात्रों ने जोर-जोर से कमरे का द्वार खटखटाया और उसे पुकारा लेकिन अंदर कोई हलचल नहीं हुई। फिर छात्रों ने वार्डन को सूचना दी जो तुरंत ही घटनास्थल पर आ गए। हॉस्टल के सामने के मैदान से 211 नंबर कमरे की खिड़की दिख रही थी जो खुली हुई थी और उस की चौखट से डा० सुरेश लटका हुआ दिख रहा था। वार्डेन और छात्रों ने द्वार को धक्का देकर बलपूर्वक खोला। रस्सी खोलकर सुरेश को उतारा गया लेकिन तब तक उसकी मृत्यु हो चुकी थी। जिस पर पुलिस को सूचना दी गई। दस मिनट में पुलिस पहुँच गई।

          मृतक हरियाणा के करनाल का निवासी था।  उस के पिता को करनाल पुलिस के माध्यम से इस दुखद घटना कि सूचना दे दी गई। करनाल से शिमला आने में, कम से कम, सात आठ घंटे का समय लग सकता था। चूंकि तब तक शाम हो जाती और शव का पोस्टमार्टम संभव न हो पाता। इसलिए, अभिभावकों की प्रतीक्षा किए बिना ही पोस्टमार्टम करवा दिया गया।

          घटनास्थल के निरीक्षण के पश्चात मैं घर वापस आ गया। आने से पहले मैंने एसएचओ को, सूइसाइड नोट की एक प्रतिलिपि लिफ़ाफ़े में बंद कर के मेरे पास कार्यालय भेजने के लिए, कहा।

          मेरी वापसी पर प्रोफेसर मालिक के विरुद्ध नारेबाजी और अधिक प्रखर हो चुकी थी। छात्र थोड़ी देर नारेबाजी करने के बाद वहाँ से चले गए।

          लगभग सात बजे शाम, मृतक सुरेश के पिता और कुछ अन्य लोग शिमला पहुँच गए। आवश्यक औपचारिकताओं के बाद शव उन को सौंप दिया गया।  शव के लिए मेडिकल कॉलेज द्वारा एम्बुलेंस उपलब्ध करवाई गई ताकि उसे अंतिम संस्कार के लिए उसके घर करनाल ले जाया जा सके।

क्रमशः ... 

 Dear readers,

            I am happy to inform you that my first book, ‘All in the Life of a Cop’, was published last year and was received well by the readers. The book is available on Amazon for Rs. 350/-.

Following is the outline of the matter covered in the book: -


SOME NOTABLE COMMENTS

            “…(the book) is a riveting account of the trials and tribulations that Mr Thakur faced during his career. It picks up stories from his career and narrates them in a manner that is both humorous and poignant, bringing forth a multitude of dimensions that a police officer is subjected to in his life”.

Shri Sanjay Kundu IPS, Director General of Police, Himachal Pradesh

            “Brilliant! …… What a crispy narration yet understated. Having been a part of Onkar Thakur’s Journey for some part of his career, I feel delighted to read this book. I vouchsafe to the readers that the experience narrated here, besides being invaluable and interesting, is educating too”.

Sh. Tarun Shridhar, IAS (HP84). Former Secretary GOI, At Present Administrative Member Central Administrative Tribunal, Lucknow.

ABOUT THE AUTHOR

The author is a retired officer of the Indian Police Service of Himachal Pradesh Cadre.
During his illustrious and eventful career, spawning over thirty-four years, he served as the District Superintendent of Police in several districts in Himachal Pradesh and retired from
Service on superannuation in 2010 in the rank of Inspector General of Police. He had investigated several high-profile and complicated cases successfully. He played a pivotal role in the
Computerisation of the Himachal Pradesh Police. After retirement from the Police, he worked with the IT giant Tech Mahindra for about three years as a Project Manager.

He has won several awards and medals, including the Police Medal for Meritorious Service in 1995, the President’s Police Medal for Distinguished Service in 2005 and the National award for e-governance 2009 (Bronze) by the Department of Administrative Reforms, Government of India.

His blogs and poetry are available on www.octhakur.com.

CONTENTS

            The work is not an autobiography. It is a first-hand account of cases and incidents which the author came across during his career and were outside the realm of the ordinary. A brief introduction is as follows:

1. The Spirited Probationer:                A trainee Police officer gets led into a piquant situation by his enthusiasm.

2. First Day First Show:           On the first day in the Police Training College, the officer has an unsavoury experience in a Police Station.

3. The Eunuch, Who Was Not! The gripping story of a Criminal masquerading as a eunuch who abused and killed a child in cold blood. While the trial court convicted him of the death penalty, the High Court acquitted him, and he vanished before the Supreme Court could tighten the noose around his neck.

4. A Perfect Plot:         Another unusual crime story successfully worked out by Police under the author’s stewardship.

5. A Brush with Gangsters:                  A lively narration of the author’s tryst with the criminal gangs operating in areas around Delhi-Ghaziabad borders.

6. An Unusual Self Promotion: A comic but real story of the author’s promotion to District Superintendent of Police.

7. Surviving a Rescue Operation:        A riveting account of how a Police Officer finds his job threatened while rescuing five villagers stranded on a small isle amidst a ravaging, flooded Bias river.

8. Hunting Down a Man-eater:            An enthralling story of hunting a leopard, who was declared a man-eater by the crowd.

9. Murderers at Large:            Unknown criminals murdered five persons, including a woman and her child, and made away with about 250 sheep and goats. Ironically, the Police failed to bring the murderers to book.

10. Revenge of the Man in Olive Green:          An army officer gets mistakenly roughed up by Police. He retaliates with the help of his brethren-in-arms.

11. A Governor’s Air-crash:    The intriguing story of an air-crash, in which Mr Surendra Nath, Governor Punjab, was killed along with twelve family members.

12. An Encounter with a General:       An ‘accidental’ encounter with a three-star when the author was going to Shimla.

13. CBI Raid on a Politician:   An absorbing account of the CBI raid on a famous politician at Mandi, when the author worked as the S. P. Mandi HP.

14. Wrath of a Judge:  Some acts of commission and omission were alleged against the author for non-registration of a case of rape in a Police Station after 14 years of the incident. It took ten years to clear himself of the disgrace.

15. The Murder by a Leopard?            An immersing account of a Murder case lays bare the intricacies and intrigues of an investigation.

16. A Mysterious Terrorist Encounter:            A thrilling story of an alleged terrorist encounter that turned out to be a made-up story.

17. Himachal CPMT Paper Leak Case:           As the caption suggests, it is an account of an investigation of a high-profile case, which will interest the layman and the professional alike.

PETALS PUBLISHERS & DISTRIBUTORS

Kidwai Nagar Market, Ludhiana (Punjab) – 141008.

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सोमवार, 10 अप्रैल 2017

Introductory

Dear Reader,

Welcome to my blog-space :-)

Here are a few words about me. I am a retired Police Officer of the India Police Service (HP:1988). I served the Police department for more than 33 long years in various capacities and do nurture an illusion (like all cops do) that I know a lot about policing, crime, investigation and the like. Therefore, I sometimes feel an over-powering urge to share stories and anecdotes which I encountered during my policing career.

I shall be telling the truth, though limited by my oath of secrecy, because I don't believe in cheap publicity (as some bureaucrats have done) by disclosing state secrets. Purpose  of my storytelling will be purely entertainment. Or may be at certain places I shall be sharing my views on matters concerning law and order and policing. Obviously, the stage-setting will be in Indian police and, of course the Indian criminal.

Please don't forget to leave your valuable comments whenever you like.

So please stand by.....