प्रशिक्षु डॉक्टर द्वारा आत्महत्या
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दोपहर बाद तक, मृतक कि
पोस्टमार्टम रिपोर्ट मेरे कार्यालय में पहुँच गई। मृत्यु का संभावित कारण लटकने से
दम घुटना था। विसरा को रासायनिक जांच के लिए राज्य अपराध विज्ञान प्रयोगशाला के
लिए भेज दिया गया था, जिस से पता चल सके कि मृतक ने किसी नशीले पदार्थ या विष का
सेवन तो नहीं किया था। विसरा पर रिपोर्ट आने में अक्सर तीन चार दिन लग जाते हैं।
तब तक, हम यह मान सकते थे कि आत्महत्या की पुष्टि हो चुकी है।
उधर, मेडिकल कॉलेज में छात्र आंदोलन गति
पकड़ रहा था। छात्रों की मुख्य मांग थी कि प्रो० मलिक को तुरंत गिरफ्तार व निलंबित
किया जाए, तथा अन्य दोषियों के विरुद्ध भी तुरंत कार्रवाई की जाए। उन का विश्वास
था कि डा० सुरेश की आत्महत्या का मुख्य कारण डा० मलिक द्वारा दी गई प्रताड़ना थी। पुलिस द्वारा
उचित कार्यवाही के आश्वासन का छात्रों पर कोई असर नहीं दिख रहा था।
उसी दिन, मैंने अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक
श्री दिलजीत ठाकुर व एसएचओ पुलिस स्टेशन ढली के साथ इस प्रकरण पर, विशेष रूप से
सूइसाइड नोट पर विस्तृत चर्चा की। मैंने अपने पुलिस के पूरे कार्यकाल में कभी इतना
लंबा नोट नहीं देखा था, न ही सुना था। मनोविज्ञान विशेषज्ञों का मत है कि अतीव
डिप्रेशन के फलस्वरूप व्यक्ति बिना अधिक सोचे, आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है और
यदि वह अधिक तर्क-वितर्क करने लगे, तो आत्महत्या संभव नहीं। ऐसी स्थिति में, वह
सामान्यतः एक संक्षिप्त सा नोट लिखता है। इतना लंबा और विस्तृत नोट, हम सभी ने
प्रथम बार ही देखा था।
पहले हम इस नोट के
मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझने का प्रयत्न करते है। बता दूँ कि मैं मनोविज्ञान का
विद्यार्थी कभी नहीं रहा। विज्ञान की इस शाखा का थोड़ा बहुत अध्ययन, मैंने पुलिस
ट्रैनिंग तथा पुलिस प्रशासन में स्नातकोत्तर डिग्री, हासिल करने के लिए किया था।
इतने से अर्जित ज्ञान के साथ ही, मैंने मृतक की मनोदशा को समझने का प्रयास किया।
यह लगभग सर्व-विदित थ्योरी
है कि मन (या मस्तिष्क) की दो अवस्थाएं होती हैं – चेतन और अवचेतन (Conscious
and sub-conscious)। चेतन मन पूरे मस्तिष्क का केवल एक प्रतिशत होता है और बाकी, अवचेतन मन होता
है। चेतन मन से हम सोचना, समझना, याद करना, पढ़ना-लिखना व अन्य कार्य करते हैं। इस
से हमें अपने चारों ओर के पर्यावरण का बोध रहता है। यदि आप इस की तुलना कंप्यूटर
कि कार्यप्रणाली से करें तो यह CPU aur RAM के सदृश है, जिस का उपयोग कंप्यूटर अपने सभी कार्यों को करने में करता है।
बचपन से व्यक्ति जो देखता
है, करता है, और अनुभव पाता है वह सब वह मस्तिष्क में
सँजो लेता है जिसे वह आवश्यकता पड़ने पर याद कर सकता है। इसे उस की स्मृति अथवा
याददाश्त कहा जाता है। यह स्मृति कंप्यूटर की हार्ड-डिस्क की तरह है जिस से वह कोड
पढ़ कर कार्य करता है। किन्तु स्मृति भी, चेतन मन का ही भाग है।
जिस क्षण, मनुष्य अबोध शिशु रूप में संसार में आता है, उसी
क्षण से जो वह देखता सुनता है, अनुभव करता है, वह सब उस के मस्तिष्क पर अवश्य अमिट
छाप छोड़ता है। कुछ अनुभव वह याद रख सकता है जो कुछ काल तक उस की स्मृति का भाग बनी
रहती है, लेकिन कुछ अनुभव, अनजाने में ही उस के मन को प्रभावित करते हैं। इस
प्रकार की जानी अनजानी स्मृतियाँ व अनुभव और उन के प्रभाव, उस के मस्तिष्क में
संचित होते रहते हैं और कालान्तर में वह उन का स्मरण तक नहीं कर पता। ये प्रभाव उस
व्यक्ति के संस्कार एवं चरित्र का भाग बन जाते है। यही उस का अवचेतन मन है। मस्तिष्क
के इस गुण के समानान्तर, शायद, कंप्यूटर में कुछ भी नहीं है।
अब डा० सुरेश के सूइसाइड
नोट पर वापिस आते हैं। जब वह अबोध बालक था, तभी से उसने अपनी माँ को पिटते व
प्रताड़ित होते हुए देखा। ऐसे परिवार के बच्चों में, असुरक्षा और भय की भावना प्रबल
होती है। अवचेतन मन में दबी कुंठाओं को चेतन मन, एक आवरण में छिपा देता है और
व्यक्ति अत्यधिक साहस, हठ और श्रेष्ठता-भ्रम का शिकार हो जाता है। किन्तु आपात काल
में अवचेतन मन के भाव, अनायास ही हावी हो जाते है। इसी प्रकार किशोरावस्था से ही
उसे विभिन्न स्त्रियों से प्रशंसा व सहवास मिलता रहा, जिस ने उसके श्रेष्ठता-भ्रम
को और प्रखर कर दिया। उसे विश्वास हो गया था कि जो भी वह चाहता है उसे अवश्य मिलेगा।
इसी जिद के कारण वह दो वर्षों के प्रयास के बाद, सुषमा को पाने में सफल रहा। लेकिन
कुछ समय बाद जब सुषमा ने पारिवारिक कारणों से उसे ठुकरा दिया तो ये उस की
हठधर्मिता और श्रेष्ठता दोनों पर कुठाराघात था। वह यह सह नहीं पाया और उसके अवचेतन
मन के असुरक्षा और भय के भावों ने, उसे भारी डिप्रेशन में धकेल दिया, जहां से वह
कभी उबर नहीं पाया। प्रोफेसर मलिक और सुषमा के पिता शमशेर वर्मा (काल्पनिक नाम)
द्वारा सताये जाने से उस की इन भावनाओं को और अधिक बल मिला और वह आत्महत्या जैसा
कदम उठाने के लिए विवश हो गया।
स्पष्ट है कि आत्महत्या के लिए, प्रो० मलिक व सुषमा से अधिक जिम्मेवार, डा० सुरेश की
अपनी कुंठायें थीं।
आत्महत्या
से जुड़े कानूनी पहलुओं को समझने के लिए पाठक को सम्बंधित वैधानिक धाराओं को समझना
आवश्यक होगा। हो सकता है कि उन्हें यह विवरण उबाऊ लगे, परंतु यह आवश्यक है। मैं न्यूनतम शब्दों में समझाने का प्रयास
करूंगा। किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करना, भारतीय दण्ड संहिता 1860 की, धारा
306 के अंतर्गत संज्ञेय अपराध है। सिद्ध
होने पर आरोपी को दस वर्ष के कारावास का दण्ड दिया जा सकता है। यहाँ दुष्प्रेरण का
कानूनी अर्थ समझना अति आवश्यक है।
दण्ड
संहिता कि धारा 107 में दुष्प्रेरण को परिभाषित किया गया है।
107. किसी बात का दुष्प्रेरण—वह व्यक्ति किसी बात के किए जाने का दुष्प्रेरण
करता है, जो--
पहला—उस बात को
करने के लिए किसी व्यक्ति को उकसाता
है
; अथवा
दूसरा—उस बात को
करने के लिए किसी षड्यंत्र में, एक या अधिक, अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों के साथ सम्मिलित होता है,
यदि उस षड्यंत्र के अनुसरण में, और उस बात
को करने के उद्देश्य से, कोई कार्य या अवैध लोप (Ommission) घटित हो
जाए
; अथवा
तीसरा—उस बात के लिए किए जाने में किसी कार्य व अवैध लोप ᳇द्वारा साशय सहायता
करता है।
दुष्प्रेरण
की उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि इस में, किसी को प्रताड़ित करके या डरा कर, ऐसी स्थिति उत्पन्न करना कि प्रताड़ित व्यक्ति आत्महत्या करने के लिए विवश
हो जाए, शामिल नहीं है, जब तक कि वे, उसे प्रत्यक्ष रूप से, ऐसा करने के लिए न उकसएं। अवधारणा
यह है कि व्यक्ति के पास प्रताड़ना से बचने के कोई न कोई रास्ता अवश्य होता
है। वह पुलिस व अन्य अधिकारियों से शिकायत
कर सकता है या वर्तमान प्रकरण में अपने प्रिन्सपल से शिकायत कर सकता था।
हाँ,
इस अवधारणा का एक अपवाद है। माना जाता है कि एक विवाहित स्त्री यदि पति द्वारा और
ससुराल के निकट संबंधियों द्वारा प्रताड़ित हो तो सामाजिक बंधनों के कारण उस के
पास, आम तौर पर, आत्महत्या के अतिरिक्त विकल्प नहीं बचता। इस आशय से, भारतीय
साक्ष्य अधिनियम 1872 में संशोधन कर धारा 113 (क) को जोड़ा गया। इस धारा में व्यवस्था दी गई कि यदि
विवाहिता के प्रति, पति या उसके नातेदार द्वारा, क्रूरता से उसे प्रताड़ित किया गया
हो, और वह विवाह के सात वर्षों के भीतर आत्महत्या कर लेती है, तो न्यायालय उपधारणा
कर सकेगा कि आत्महत्या उन के दुष्प्रेरण के कारण की गई है।
प्रबुद्ध पाठक समझ ही गए होंगे, कि इस मामले में
सूइसाइड नोट में आरोपित व्यक्तियों को, डा० सुरेश की आत्महत्या के लिए जिम्मेवार
नहीं ठहराया जा सकता। वैसे भी यदि कोई लड़की, अपने प्रेमी से ब्रेक-अप कर ले तो ये
किसी भी कानून में अपराध नहीं है। प्रो० मलिक और शमशेर वर्मा द्वारा यदि उसे डराया गया
हो या प्रताड़ित किया गया हो तो वह कोई भी दूसरा अपराध हो सकता है, किन्तु
आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरण नहीं हो सकता। अतः पुलिस के विचार से, IPC 306
के अंतर्गत अभियोग दर्ज करना उचित
नहीं था और मामले में गहराई से आगे जांच करने की आवश्यकता थी। इन दोनों व्यक्तियों
द्वारा की गई कथित प्रताड़ना या मारपीट के विरुद्ध, मृतक के पास पुलिस में शिकायत
करने का विकल्प खुला था। अभियोग दर्ज करने
का मतलब था, निर्दोष सुषमा सहित अन्य सभी की वैधानिक प्रताड़ना एवं बदनामी।
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लेकिन लोक-मत हमारे विचार के विपरीत था। हमारे
विचार को उचित सिद्ध होने में अभी तीन वर्ष और सीबीआई की आवश्यकता पड़ने वाली थी।
इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज के छात्रों का आंदोलन
जोर पकड़ चुका था। छात्र कक्षाओं का बहिष्कार करने लगे थे। एक दो बार आंदोलनकारी
छात्रों ने सड़क पर बैठ कर ट्रैफिक बाधित करने का प्रयत्न भी किया। उनकी एक ही मांग थी कि प्रो० मलिक को तुरंत
गिरफ्तार किया जाए और उसे निलंबित किया जाए। लेकिन इस के लिए पहले अभियोग दर्ज
होना आवश्यक था। भारतीय दण्ड प्रक्रिया
संहिता (CrPC) के अनुसार
प्राथमिक रिपोर्ट (FIR) तभी दर्ज की जा सकती है, जब किसी
संज्ञेय अपराध का होना पाया जाए या ऐसा संदेह होने के पर्याप्त कारण हों कि
संज्ञेय अपराध घटित हुआ है। किन्तु हमारी तब तक कि जांच में किसी संज्ञेय अपराध का
होना नहीं पाया गया था।
पाठक के लिए यहाँ संज्ञेय (Cognizable) और असंज्ञेय (Non-cognizable) अपराध का अंतर जानना आवश्यक होगा। ये दोनों शब्द,
दण्ड संहिता में परिभाषित हैं, जिस में सभी अपराधों को इन दो श्रेणियों में बांटा
गया है। संज्ञेय अपराधों में पुलिस स्वयं कार्रवाई कर सकती है, तथा आरोपी को बिना
वारन्ट के गिरफ्तार कर सकती है। इस के विपरीत अन्य अपराधों, जिन्हें असंज्ञेय कहा
गया है, में पुलिस मजिस्ट्रेट की अनुमति के बाद ही कार्रवाई कर सकती है, तथा किसी
को बिना वारन्ट गिरफ्तार नहीं कर सकती। विधान बनाने वालों का मन्तव्य रहा होगा, कि
बहुत से छोटे अपराधों में पुलिस अपनी टांग न अड़ाए, वरन पीड़ित न्यायालय से न्याय
मांगे। परंतु यथार्थ में, यदि किसी व्यक्ति को कोई गाली भी दे तो वह अपेक्षा करता
है कि पुलिस (यानी राज्य) उस की सहायता करे और आवश्यक कार्रवाई करे। जब पुलिस, इस
बिना पर, कार्यवाही से इनकार करे कि अपराध असंज्ञेय है, तो वह पुलिस को कोसता है,
जिस से पुलिस की छवि धूमिल होती है। मेरे विचार से, विधानिका को सभी अपराध संज्ञेय
कर देने चाहिए ताकि पुलिस जनसाधारण की अपेक्षा पर खरी उतर सके।
एक ओर, जहां छात्रों का आंदोलन उग्र हो चला था और
वहीं दूसरी ओर, मृतक के परिजन, सभी आरोपियों की गिरफ़्तारी की मांग कर रहे थे। वे
लोग इस सम्बन्ध में पुलिस महानिदेशक, तथा मुख्य मंत्री को भी मिले, और उनसे
स्थानीय पुलिस की अकर्मण्यता की शिकायत की। अंततः आंदोलनकारियों व परिवारजनों के
दवाब में पुलिस को, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज
करनी पड़ी। तीनों आरोपियों, यानी प्रो० बाजवा, कुमारी सुषमा और उस के पिता शमशेर
वर्मा, को इस बात की भनक लग गई और उन्होंने अग्रिम जमानत के लिए प्रदेश उच्च
न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।
उस समय तक, पुलिस के पास आरोपियों के विरुद्ध,
सूइसाइड नोट के अतिरिक्त और कोई भी अकाट्य साक्ष्य नहीं था। परिणाम स्वरूप, तीनों
को अग्रिम जमानत मिल गई। आंदोलनकारी छात्रों को शांत करने के लिए मेडिकल कॉलेज
प्रशासन ने एक आंतरिक जांच के पश्चात प्रो० मलिक को निलंबित कर दिया। छात्रों ने
आंदोलन वापस ले लिया।
मृतक के परिवार वाले, एसएचओ पुलिस स्टेशन ढली की
जांच से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने मुख्यमंत्री से अभियोग को जांच के लिए सीबीआई
को स्थानांतरित करने की मांग रखी। लेकिन उनकी यह मांग स्वीकार नहीं हुई, मगर
अभियोग को सीआईडी कि अपराध शाखा को भेज दिया गया।
नवम्बर 1999 को मेरा स्थानांतरण, एसपी जिला मंडी
के तौर पर हो गया। अतः अभियोग में आगे की
जांच के विस्तृत विवरण से अनभिज्ञ रहा।
लेकिन बीच-बीच में कुछ समाचार मिलते रहे। पता चला कि प्रो० बाजवा ने
क्षुब्ध हो कर नौकरी छोड़ने का और स्वैच्छिक सेवा निवृति का आवेदन किया था जो सरकार
ने अस्वीकृत कर दिया। निलंबन अवधि में यह संभव नहीं था।
कुमारी सुषमा, और उस के पिता को भी बारम्बार
पूछताछ के लिए अपराध शाखा के चक्कर लगाने पड़े। बाद में पता चला, कि फ़रवरी 2000 में,
अभियोग को केन्द्रीय जांच ब्यूरो को आगे की जांच के लिए भेज दिया गया। यह
आश्चर्यजनक था। आम तौर पर, सीबीआई इस प्रकार के अभियोगों को केवल प्रदेश सरकार की
सलाह पर जांच के लिए नहीं लेती, जब तक कि वह स्वयं को इस की उपयोगिता पर आश्वस्त न
का ले। दूसरे, मेरे विचार में, मृतक एक गरीब परिवार से सम्बंधित था। उन्होंने
प्रदेश सरकार को अभियोग को सीबीआई को भेजने के लिए कैसे प्रभावित किया होगा। पाठक
को याद होगा कि जिला सिरमौर का एक अभियोग, जिस में चार वयस्कों और एक बालक की
निर्मम हत्या हुई थी और अढ़ाई सौ भेड़-बकरियाँ चोरी हुई थीं और जांच में कोई प्रगति
नहीं हो पा रही थी, को सरकार ने सीबीआई को देने के बारे विचार तक नहीं किया। इतना
ही नहीं, सीबीआई को स्थानीय पुलिस की कार्रवाई की विवेचना करने को भी कहा गया कि
यदि उन्होंने अभियोग में कोई ढील बरती है तो उनके विरुद्ध भी कार्यवाही की जाए।
दो वर्षों तक सीबीआई की जांच चलती रही। इस दौरान
सभी आरोपियों को कई बार, जांच अधिकारियों ने, शिमला तथा चंडीगढ़ में जांच में शामिल
होने के लिए तलब किया। कई अन्य गवाहों के व्यान लिए गए। अंततः गहन जांच के पश्चात,
सीबीआई ने मेरे मत की पुष्टि कर दी और अभियोग में, वर्ष 2003 में क्लोज़र रिपोर्ट
दे दी और कहा कि आरोपियों के विरुद्ध धारा 306 के आरोप सिद्ध नहीं हुए। जांच
अधिकारी, एसएचओ ढली की भी कोई ढील नहीं पाई गई।
मामला शांत हुआ लेकिन अपने पीछे अनगिनत प्रश्न
छोड़ गया। वस्तुतः इन प्रश्नों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए ही इस प्रकरण को इस
पुस्तक में स्थान मिला।
एक व्यक्ति की मानसिक विकृतियों के कारण तीन जीवन
टूटने के कगार पर आ गए। प्रो० मलिक को
बहाल कर दिया गया। लेकिन वे स्वेच्छा से सेवानिवृत्त हो गए और उन्होंने खामोशी से
शिमला को अलविदा कह दिया। इसी प्रकार कुमारी सुषमा और उनके पिता को घोर मानसिक
पीड़ा से गुजरना पड़ा। बदनामी का दंश सहन पड़ा। इस घटना ने उन के व्यक्तिगत और
सामाजिक पटल पर ऐसे घाव दे दिए, जो उन्हें जीवन-पर्यंत ढोने पड़ेंगे।
अपनी माँ के सपने भी उस ने निर्ममता से तोड़ दिए।
इस कर्म भीरु व्यक्ति, जिस में जीवन की कठिनाइयों से लड़ने का साहस नहीं था, से
किसी को भी संवेदना नहीं हो सकती।
इस प्रकार का यह कोई इकलौता मामला नहीं है जहां
पुलिस को दवाब में आ कर अभियोग दर्ज करना पड़ा हो और अंततः उस का कोई परिणाम नहीं
निकला हो। फिर भी इनकी पुनरावृति होती
रहती है। पुलिस अनुचित दवाब का प्रतिकार
करने में असफल रहती है और कई जीवन, उस अपराध का दंड भुगतने को बाध्य हो जाते हैं
जो उन्होंने वास्तव में किया ही नहीं।
(... ... समाप्त)
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